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माह

अक्टूबर 2015

डिजिटल इंडिया का सच ?

DIGITAL-INDIA
मोदी सरकार के आने के बाद डिजिटल इंडिया का जिस तरह प्रचार हुआ है, उसे पसंद करने वालों की भी कमी नहीं है। ना ही ऐसे लोगों की कमी है, जो इसे महज प्रचार बताते हैं। मेरी एक कहानी है, जो डिजिटल इंडिया से जुड़ती है। कुछ समय पहले मुझे अपना पासपोर्ट रिन्यू कराना था। जून की बात है। सब कुछ होने के बाद मामला फंस गया। उनके पास मौजूद डिटेल में लिखा था कि ग्रेट ब्रिटेन में पासपोर्ट बनने की प्रक्रिया शुरू हुई थी। मुझे याद आया। 2012 लंदन ओलिंपिक्स में मेरा पासपोर्ट खोया था। वहां नए के लिए अप्लाई किया। उसके बाद खोया पासपोर्ट मिल गया। वहां एप्लिकेशन देकर प्रक्रिया बंद करवा दी। लेकिन उसमें किसी ने ये रिमार्क नहीं लिखा कि प्रक्रिया बंद कर दी गई है। मुझे आरपीओ, भीकाजी कामा प्लेस जाने को कहा गया। वहां बताया गया कि हम हाई कमीशन को लिख रहे हैं। वहां से जब जवाब आएगा कि पासपोर्ट इश्यू नहीं हुआ है, उसके बाद आपका पासपोर्ट बन पाएगा। जून से अगस्त आ गया था। हाई कमीशन से कुछ दिन जवाब न आने के बाद मैंने मेल किया। जवाब आया कि हमें दिल्ली से ऐसी कोई क्वेरी नहीं मिली है। मैंने वापस आरपीओ संपर्क किया। कागज फिर भेजे गए। अब सितंबर बीतने वाला था। हाई कमीशन ने आखिर एक मेल का जवाब दिया और कहा कि आपका क्लीयरेंस 18 सितंबर को भेजा जा चुका है। अब आरपीओ में बात करने की लगातार कोशिश नाकाम होती रही। हेल्पलाइन से लेकर परिचित सदस्य का मोबाइल, किसी पर जवाब नहीं आ रहा था। परेशान होकर एक दिन सुषमा स्वराज को पूरा मामला ट्वीट कर दिया। सुना था कि उन्हें ट्वीट करने पर एक्शन फटाफट होता है। गुरुवार की शाम की बात है ये। शुक्रवार को शाम को आरपीओ से ट्वीट का जवाब आ गया कि आप सोमवार को आरपीओ आ जाइए और हमसे बात कीजिए। मैं सोमवार सुबह पहुंचा। आरटीआई डिपार्टमेंट में एक सज्जन से मिलने को कहा गया। उनके पास ट्वीट की बाकायदा फाइल बनी हुई थी। उन्होंने फाइल निकाली। फिर मामला चेक किया। शर्मिंदगी में कहा – अरे, हम क्या करें.. यहां लोग मेल तक चेक नहीं करते। आपका तो क्लीयरेंस कबका आ चुका है। उन्होंने आरपीओ से लेकर कई जगह कागजों पर खुद जाकर साइन कराए। कुछ पेपर स्कैन कराने थे, वो भी खुद कराए। उसके बाद मुस्कुराकर मुझसे हाथ मिलाया, ‘कल सुबह पासपोर्ट आपके हाथ में होगा।’ मैं करीब साढ़े 11 बजे पहुंचा था। करीब एक-सवा घंटे के बाद वहां से निकला। तीन बजे के आसपास मैसेज आया कि आपका पासपोर्ट प्रिंटिंग के लिए चला गया है। छह के आसपास मैसेज आया कि पासपोर्ट प्रिंट हो गया है। रात एक बजे मैसेज आया कि पासपोर्ट डिस्पैच हो गया है। सुबह 11 से 12 के बीच पासपोर्ट घर आ गया था। पिछले एक साल में तमाम अच्छी और बुरी चीजें हुई होंगी। लेकिन कम से कम मेरे लिए डिजिटल इंडिया ने काम किया। जो चार महीने तक नहीं हुआ, वो 24 घंटे में हो गया।

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(शैलेष चतुर्वेदी टीवी पत्रकार)

Tombstone and Field Mouse-A Tragedy !

my dewa

I revisited my childhood town after a decade. I wandered like a stranger, very few remembered me now. I sat beneath the tree that was once our classroom during summer months. The tree was dying slow but sure; I went searching for the tombstones of my beloved teachers. On the way I plucked some flowers to place on their graves. The local undertaker had dug-up the old graveyard, exhumed the remains and shifted it to a new location near the riverbank. It’s such a pain and grief that whom we once loved and took solace and guidance are now lying silent in their grave. Life sometimes takes a turn for the worse and we have no one to turn to for support and at such times its better to engage in a mute conversation with oneself than to turn to the living.

While I returned disappointed from the graveyard, unable to find the tombstones of my teachers; on the way I saw demolition of illegal shanties of the poor by local authorities. I cannot forget the tearful faces of poor kids watching helplessly their sweet little home now being bulldozed. The poor children might miss their belongings including their rag-dolls and scribbles they must have did on the walls of their hut. Oh! What a pity.

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Forget the dead even the living have to face the same fate of yet another dislocation when an old town gets a face-lift just ahead of polls by some opportunist politician. The irony and sympathy of the situation reminded me of the sensitive poem by 18th century English poet Robert ‘Bobby’ Burns. He wrote a poem titled ‘To a Mouse’ it’s about the ploughing of the farm mouse’s home by a farmer unaware of the tragedy that he had struck on the mouse family. A highly philosophical work that not just portrays the tragedy of a mouse but also a comment on the human sufferings due to sudden homelessness caused by unforeseen circumstances. We as humans are selfish and only can feel the pain of others when we are struck in a similar situation. Yet most of the times we prefer to be a mute witness to others pains.

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Written by Dev S Prasad (Mumbai-based TV journalist)

मेरी यात्रा-2

yatra
अगरतला, त्रिपुरा यात्रा के दूसरे दिन हमारे तैयार होने से पहले ही टूर समन्वयक हरी लाल नास्ते की घंटी बजाते 8 बजे कमरे के अंदर हो गए। मैं तो किसी तरह नीचे पहुंच गया लेकिन टूर में मेरे रूम पार्टनर राजकुमार जी को थोड़ी देर हुई। खैर 12 सीटर नान एसी वैन में बैठते ही महसूस हुआ कि बिना मतलब नहाया, जब पसीने से ही नहाना था (इसीलिए वाहन का नान एसी होने का पहले दिन खास रूप से उल्लेख किया था। क्योंकि इसने हमें पूरी यात्रा में बड़ा दर्द दिया)।
पसीने से भीगते हुए आगे बढ़े तो सहयोगी सुनील तिवारी जी ने बताया कि बार्डर पर ही एक समुद्र है, इसके कारण यहां उमस बहुत ज्यादा होती है। खैर, हमारे पास कुढ़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। व्यवस्थित शहर को निहारते हुए जब ग्रामीण क्षेत्र में पहुंचे तो दूर-दूर तक धान की लहलहाती खेती (अब पता चला कि खाने में चावल ही क्यों ज्यादा मिलता है) और पहाड़ों पर बांस के पेड़ काफी आकर्षित कर रहे थे।
लक्ष्य, मांडवी ब्लॉक (आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र) बहुत दूर था और उमस लगातार बढ़ रही थी। चौड़े-चौड़े रास्ते सिंगल लेन में बदले तो गाड़ी की स्पीड धीमी हुई और उमस ज्यादा बढ़ गई। हालांकि दूर-दराज गांवों में भी सड़क, बिजली और पानी की पर्याप्त व्यवस्था थी। लगभग 40 किलोमीटर की दूरी तय कर हम ब्लॉक पहुंचे तो वहां हमारा पहले से इंतजार चल रहा था।
सामने बैठे लोगों से जब परिचय हुआ तो हम थोड़ा आश्चर्यचकित हुए, हमारे सामने चार बार के विधायक मनोरंजन देव वर्मा, जिला काउंसिल की अध्यक्ष नमिता देव वर्मा, क्षेत्रीय अध्यक्ष रीना देव वर्मा थीं। विधायक के साथ न तो गार्ड, न होम गार्ड, न किसी तरह का तामझाम, पहनावा भी बिल्कुल सामान्य। शायद इसी सागदी पर लोग उन्हें चुनते आ रहे हैं। बताया, क्षेत्र में हर जगह 24 घंटे बिजली-पानी की सुविधा है। सड़कें हर गांव तक हैं। हर एक किलोमीटर पर स्कूल, आंगनबाड़ी केंद्र, स्वास्थ्य केंद्र हैं।
कमी है तो सिर्फ 100 फीसदी सेनिटेशन की, शौचालयों के निर्माण का काम तेजी से चल रहा है। यहां का लिंगानुपात 52 पुरुष, 48 महिला का था। बांस, धान और केला की खेती प्राथमिकता पर होती है।
हमारी एक और परीक्षा लेते हुए नॉन एसी गाड़ी और आगे बढ़ी बैंबू प्लांटेशन (बांस की खेती) देखने के लिए। पहाड़ी रास्तों को पार करते और बीच में चाय बागान में फोटो सेशन कराते हम पहुंचे। रास्ते में ऊंची चढ़ाई में गाड़ी जब वापस खिसकने लगी तो सहयोगी अरविंद ने गाड़ी से उतरने का एलार्म भी बजा दिया। हालांकि हम सकुशल अपने लक्ष्य पर पहुंचे। बांस से बने मचान पर कुर्सियों में बैठने का मजा ही कुछ अलग था। उस पर भी कड़वी चाय और बिस्किट। पहाड़ी लोगों के आतिथ्य सत्कार ने सबमें मीठा रस घोल दिया। इस बांस से टाइल्स बनाने का प्रस्ताव है और हर गरीब को रोजगार देने का प्रयास भी।
—– वापस उन्हीं दुर्गम रास्तों से होते हुए फिर मांडवी ब्लाक पहुंचे, जहां हमारे दोपहर के भोजन की व्यवस्था की। हमारी समस्या से टूर समन्वयक हरी लाल भले न पसीजे हो लेकिन वरुण देव पसीजे और झमाझम बरसात की। इस बीच दो कमरों में अलग-अलग शाकाहारी-मांसाहारी खाने की व्यवस्था थी। आदिवासी क्षेत्र का खाना, इसलिए हरी सब्जियां भी पूछ-पूछकर चखनी पड़ रही थी। तीखी इतनी कि दोबारा खाने की हिम्मत नहीं पड़ी। किसी तरह चावल-दाल खाया, क्योंकि पेट तो भरना ही था। इसी बहाने आदिवासी क्षेत्र के लोगों के दैनिक जीवन में आने वाली समस्याओं से भी रू-ब-रू होने का मौका भी मिला। यहां भी लोगों को आतिथ्य सत्कार ने पेट भरने में काफी सहायता की।
अगला पड़ाव ऑटोनामस डिस्ट्रक्टि काउंसिल, टीटीएडीसी के सीईओ से मिलने का था। सीईओ के रूप में गोरखपुर निवासी आईएएस अभिषेक सिंह (बनारस के पूर्व जिलाधिकारी प्रांजल यादव के बैचमेट भी) मिले तो न सिर्फ हमारे बल्कि उनका भी चेहरा भी खिल गया। उन्हें वर्षों बाद हिंदी बोलने का अवसर जो मिला था। एक-एक, कर उन्होंने हर छोटी बड़ी जानकारी साझा की। दो टूक बोले, यूपी जैसा भ्रष्टाचार नहीं है यहां।
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राजनीति विकास कार्यों के आड़े नहीं आती। स्टेट-केंद्र के फंड और अपनी आय से बहुमुखी विकास हो रहा है। यहां आंगनबाड़ी केंद्र विकास कार्यों की धुरी हैं और उनका बेहतर प्रयोग होता है। लोगों को ही उनके क्षेत्र के विकास का जिम्मा दे दिया जाता है। जवाबदेही जब उनके सिर होती है तो गड़बड़ी की कोई संभावना नहीं बचती है। अभिषेक सिंह, बड़े ही गर्व से कहा यहां भिखारी, बेघर और सड़क पर सोने वाले नहीं मिलेंगे। थोड़ी ठेस तो लगी (क्योंकि अपने यहां इसकी बहुलता है।) लेकिन मन मसोस कर रह गए।
अभिषेक जी से विदाई लेते हुए बांग्लादेश की सीमा पर स्थित अखौड़ा, अगरतला बार्डर पहुंच गए। इस बार्डर की यही खासियत थी कि बार्डर जैसा कुछ दिखा नहीं। शाम की परेड की तैयारियां पूरी थी, कॉशन के बीच जवान जब सामने से निकले तो सभी खुद शांत हो गए। सामने बांग्लादेश से भी हमारे जैसे कुछ सैलानी डटे हुए थे। परेड देखने के लिए हमारे बॉर्डर पर महिलाओं के लिए अलग से कुर्सियां लगाई गई थी। यह देख सुखद अनुभव हुआ। फिर हमारे बैठने के लिए भी कुर्सियां लगी। परेड हुई और दोनों देशों के जवानों ने हाथ मिलाया तो आम लोगों को भी 2 मिनट मिलने का मौका मिला।
यहां तैनात कमांडेंट और अन्य अधिकारियों ने जो जानकारियां दी वह आंखें नम करने वाली थी। बताया कि कई लोगों को शाम की इस परेड का इंतजार होता है। इसी बहाने उन्हें अपनों से मिलने, आंखें चार करने का मौका मिलता है। सुरक्षा कारणों से कुछ आदान-प्रदान तो नहीं करा सकते। कई बार लोग अपने परिचितों के लिए खाने का सामान तक लेकर आते हैं। दोनों देशों के लोगों को आने जाने के लिए वीजा-पासपोर्ट की जरूरत होती है। दिन में एक बार ढाका के लिए बस जाती-आती है। यह सुनकर सुकून मिला कि इस बार्डर पर किसी तरह का तनाव नहीं है। ढेर सारी जानकारियां जुटाने के बाद हम वापस लौटे।
शरीर का जर्रा-जर्रा दर्द कर रहा था। आकर बिस्तर पर निढ़ाल हुए लेकिन यह चिंता भी कि चावल ही खाकर फिर पेट भरना होगा। (पहले ही बताया कि यहां रोटियां कम मिलती हैं।) हालांकि जब खाने की टेबिल पर पहुंचे तो थोड़ा सुकून हुआ, हमारी समस्या को देखते हुए होटल वाले ने रोटियों की भी पर्याप्त व्यवस्था कर रखी थी। इस बीच हरी लाल जी का अल्टीमेटम, कल सुबह कोई दिक्कत नहीं चलेगी, सुबह 8 बजे तक तैयार होना है। कुछ देर के लिए बचपन याद आ गया, जब स्कूल जाने के लिए इस तरह की हिदायतें मिलती थी। हम बंक तो उस समय भी मारते थे लेकिन इस समय थोड़ा मुश्किल हो रहा था।।।।।।।
जारी है………….
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(युवा पत्रकार अक्षय मिश्र दैनिक हिंदुस्तान वाराणसी से जुड़े हुए हैं)

गाय का सियासी दोहन !

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(वरिष्ठ टीवी पत्रकार दिनेश गौतम का हरिभूमि में प्रकाशित लेख)
हम सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न ,लोकतंत्रात्मक, धर्म निरपेक्ष गणराज्य हैं ।और किसी भी तरह की टकराव या भटकाव की स्थिति में हमको राह दिखने और समाधान के लिए हमारे पास नियम कायदों को समेटे संविधान है।विविधताओं वाले इस देश में बहुत सारे मुद्दों पर व्यवस्था की ज़रुरत की वजह से ही संविधान निर्माताओं ने दो साल 6 महीने और 17 दिनों की कठिन तपस्या के बाद संसार भर में सबसे बड़ा संविधान बनाया। हम एक देश के तौर पर इसी संविधान के प्रति जवाबदेह हैं।अगर ये सब सच है तो हम लोगों को अपने आपराधिक अबोध से बाहर आने में और कितने साल लगेंगे? क्योंकि संविधान लागू हुए तो आधी सदी से ज़्यादा बीत गया ।क्यों अचानक संस्कारों, संविधान और सुनहरे भविष्य की बातों के बीच देश के राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में “कौवे के कान ले जाने” वाली मसल अपने सबसे क्रूर और और विद्रूप चेहरे के साथ दिखाई देती है ।एक दिन पहले भाईचारे के त्यौहार में साथ खाना खाया ,अगले दिन महज़ कही सुनी बात पर कानून पर गोबर फेर एक इंसान को हलाक़ कर दिया और दूसरे को अधमरा ।रिश्तों ने सच जानने तक भी सब्र न किया और जिस राज्य में गो हत्या पर अपना कानून है और अपराध की सश्रम सजा भी, वहां दादरी के इन लोगों को कानून की राह चलना ज़रूरी क्यों न लगा? घटना के बाद शुरू हुआ कौम से हमदर्दी और पलटवार हमदर्दी का भद्दा सियासी सिलसिला ।किसी ने दुःख और नराज़गी को ज़हर में तब्दील कर कौम का रहनुमा दिखने की कोशिश की तो किसी ने बेशर्मी को भी शर्मिंदा कर अपने बूचड़खाने वाले कारोबार के बावजूद खुद को गो रक्षा का ध्वजवाहक स्थापित करने में कसर न छोड़ी। ज़िम्मेदारी न अपराधियों को समझ आई न खबरबाज़ों को और न ही “वोट ही इमान है” मार्का नेताओं को ।और ये कलाबाज़ियाँ समाज का आइना तैयार करने वाले साहित्यकारों में से कई के अकादमी पुरस्कार लौटाने की होड़ से चर्चा में आने की जद्दोजहद से लेकर एक गुमनाम से रहे मुख्यमंत्री के सियासी गो दोहन कर अचानक सुर्ख़ियों में आने तक लगातार जारी रहा ।संविधान का अनुच्छेद 48 और उसमे राज्यों के लिए इस विषय पर नीति निर्देशक तत्व,अनुसूची 7 की प्रविष्टि क्रमांक 15 और 26 अक्टूबर 2005 को आया सर्वोच्च न्यायलय का अहम फैसला….आखिर ये सब देश में एक विषय पर व्यवस्था के लिए ही तो वजूद में आए ।पर घटना और उसके बाद हुई प्रतिक्रियाओं से जुड़े कितने किरदारों ने गौ वंश से जुड़े कानूनी तथ्य जानने के बाद,क्या सही है और क्या गलत ये जानने की तक़लीफ़ की? कितनी राज्य सरकारों(क्योंकि यह राज्यों का अधिकार क्षेत्र है) ने ये आत्म मंथन किया के देश में मौजूद करीब 37000 बूचड़खानों में से 90 फीसदी गैरकानूनी तरीके से क्यों चल रहे है ?जबकि केरल और उत्तर पूर्व के कुछ राज्यों को छोड़ कर हर राज्य में (29 में से 24 राज्यों में)इस विषय में स्पष्ट कानून मौजूद हैं ।और इन गैर कानूनी कत्लखानो में से भी ज़्यादातर महाराष्ट्र,आँध्रप्रदेश के साथ साथ उत्तर प्रदेश में क्यों हैं ।
उधर “मेंरी मर्ज़ी” के पैरोकार,जैसा हो फैशन बात तब तैसी कीजे छाप लोग भी बिना इस बात की परवाह किये,कि उन्हें सच्चाई,तथ्य,कानून और उसके तहत अपने मौलिक अधिकारों के साथ मिले कर्तव्यों, का कितना बोध है,सोशल मीडिया से लेकर चैनलों तक में “मुह है की मानता नहीं” का भोंडा प्रदर्शन करने में शान समझते रहे ।
बढ़ते वृद्धाश्रमों में रहने वाली, सक्षम हिन्दू बेटों की माँ गो माता के लिए चल रहे इन प्रसंगों पर क्या सोचती होंगी कहना ज़रूरी नहीं और अल्पसंख्यको का तरफदार दिखने वाले नेताओं ने इस वर्ग का कितना भला किया ये न जाने कितनी ही सामाजिक आर्थिक रिपोर्टों में उजागर हो चुका है ।
हमें एक ज़िम्मेदार सरकार चाहिए पर हम अपनी निरंकुश वृत्तियों पर काबू करने को तैयार नहीं ।अरे हम ही पाशविक हो गए तो गोरक्षा से पहले तो हमें अपना सोचना होगा ।और सियासी खिलाडियों के लिए हम अगर कच्ची गोलियां ही बने रहे तो हमारा मोहरों के तौर पर इस्तेमाल होने से कौन रोक सकता है ।
अरे सब छोडें कम से कब अब तो कान को हाथ लगायें।कौव्वे के पीछे जाने से पहले……।
 http://epaper.haribhoomi.com/Details.aspx?id=162120&boxid=58442050

मरता नहीं क्यों ज़िन्दा है रावण?

ravan
अगर जो निशाने पे बैठा है रावण
मरता नहीं क्यों ज़िन्दा है रावण?
हर क़तरे से उसके जनमता है रावण
नफ़रत के ख़ून से बनता है रावण
हर घर में, मन में बैठा है रावण
पास में, पड़ोस में; हर जगह दशानन
गुस्सा है देश में, बदले की है आग
हर मन में तभी तो सुलग रहा है रावण
इस सुलगते रावण के कई हैं मकाम
जाति-नस्ल कभी मज़हब हैॆ नाम
बहरूपिया बनकर जी रहा है रावण
मरता नहीं क्यों ज़िन्दा है रावण?
मरावण..मरा..म…रा…म….राssssम
धरा को चाहिए आज एक राम
तभी तो मिटेगा मायावी रावण
कहां हैं यमराज, कहां हैं राम?
अगर जो निशाने बैठा है रावण
मरता नहीं क्यों ज़िन्दा है रावण?
prem
prem kumar (dy ep at news word india)

साइकिल को बनाएं शान की सवारी

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आजकल देश के कई बड़े शहरों में ‘कार फ्री डे’ की चर्चा है. पिछले दिनों दिल्ली में यह धूम-धाम से मनाया गया.इसका मकसद है कार का इस्तेमाल कम करके साइकिल की सवारी को बढ़ावा देना, ताकि प्रदूषण कम हो, सड़कों पर ट्रैफिक का दबाव घटे और लोगों का स्वास्थ्य बेहतर हो. पर यह आसान नहीं है. नए-नए पैसे वाले हुए लोग कार को स्टेटस सिंबल मानते हैं. उनकी मानसिकता बदले, तभी कार फ्री डे जैसे उपायों का कोई मतलब है.

वायु प्रदूषण से लड़ने के लिए साइकिल क्रांति की शुरुआत उत्तरी यूरोपीय देशों में लगभग पचास साल पहले हुई थी और बीस साल पहले इसे संस्थागत रूप दिया गया था. नीदरलैंड और बेल्जियम में तो पिछले पांच दशकों से कार फ्री संडे मनाया जाता है.1994 में स्पेन में हुई एक कॉन्फ्रेंस में हर साल 22 सितंबर को कार फ्री डे मनाने का प्रस्ताव पास हुआ था.उसके बाद से तकरीबन 1500 शहर इस अभियान से जुड़ चुके हैं. पिछले ढाई दशकों में अमेरिका में भी कार फ्री डे आयोजित किया जाता है.कई देशों में ऑटो फ्री सिटी, कारलेस संडे, इन टाउन विदाउट माई कार, यहां तक कि कार फ्री वीक मनाने का प्रचलन वर्षों से है.

मगर मामला सिर्फ डे मनाने तक सीमित नहीं है.प्रतीकात्मक तौर पर यह जरूर मनाया जाता है, लेकिन पैदल चलना, पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल और साइकलिंग करना विकसित देशों में लोगों की दिनचर्या का हिस्सा बन चुका है. एक दशक पहले ब्रिटेन की यात्रा के दौरान मैंने एक ट्रेन पर लिखा देखा- ‘साइकिल एंड पेट्स अलाउड’. पेट्स की बात तो समझ में आई, लेकिन ‘साइकिल अलाउड’ का फंडा समझ में नहीं आया.

(वरिष्ठ पत्रकार संजीव कुमार का नवभारत टाइम्स में प्रकाशित लेख पूरा पढ़ने के लिए आगे दिए गए लिंक पर क्लिक करें…)

http://epaper.navbharattimes.com/details/10591-43453-1.html

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बहस में आज गाय क्यों है ?

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बहस में आज गाय क्यों है
मुख्तलिफ राय क्यों है
सदियों से गाय माता ही थी
बीफ वाली थाली का जायका ही थी
गाय बचाने की बहस है पुरानी
खूंटे से बांधा पर हार ना मानी
माता के लिए क्यों हो भ्राता का कत्ल
भावना में दम हो तो आएगी अक्ल
मसले लम्बी ज़िन्दगी के हों
अमन-चैन-भाईचारगी के हों 
एक-दूजे के लिए हों उपयोगी
गाय पर बहस से यही सीखोजी
ख़ून ख़राबे में गाय बेचारी
भाई की हत्या में माय बेचारी
बहस में आज गाय क्यों है
मुख्तलिफ राय क्यों है…

prem

prem kumar (dy ep at news word india)

आस्था पर भारी जायका !

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इन दिनों गोमांस खाने या नहीं खाने को लेकर बहस गर्म है। तमाम तरह के तर्क दिए जा रहे हैं। बहसबाजी हो रही है। इतिहास खंगाला जा रहा है। भूगोल परखे जा रहे हैं। जातियों, समाजों का नब्ज टटोला जा रहा है। और इसी बीच कुछ लोग तो बीफ पार्टी और काऊ मिल्क पार्टी भी दे रहे  हैं. सामने बिहार विधानसभा चुनाव है तो बीच चुनाव में गोमांस पर सियासत भी खूब होती रही। शब्दों से आस्था पर चोट चरम पर आ गई।  मर्यादा की सीमा सभी भूूल गए। गाय के मुद्दे को सबने यूं गले लगाया कि मानों गाय केवल दूध नहीं देती बल्कि वोट भी देती है। यूं कहा जाए कि सत्ता और सियासत के लिए ऐसे मसलों को हवा दी गई तो कोई गलत नहीं। लेकिन इस बीच सामाजिक सौहार्द को ताक पर रख दिया गया । बॉलीवुड से लेकर गली-नुक्कड तक बिहार चुनाव में गोमांस के मुद्दा छाया रहा। किसी ने इसे खाने-पीने की आजादी से जोड़ा तो कोई इसे परंपरावादी समाज की पहचान बताया। गोमांस खाने के बहाने प्राचीन काल के दस्तावेज पलटे गए। विद्वानों की लिखी किताबों/बयानों का हवाला दिया गया, बीफ निर्यात के आंकड़े परोसे गए . बहस करने वाले बीफ और गोमांस का फर्क बताते रहे। लेकिन समाज में गाय की सामाजिक-वैज्ञानिक उपयोगिता प्रस्तुत करने की किसी ने भी जहमत नहीं उठाई। कहीं कोई गाय के यथार्थ से मुख मोड़ कर अंध भक्त बनते देखे गए तो किसी को गाय केवल खाने वाली चीज़ लगी रही। लेकिन इन दोनों के अलावा भी गाय की कोई सामाजिक सिद्धी है उसके बारे में विश्लेषण नहीं किया गया।
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गौरतलब है कि 2014 लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने गोमांस/गोहत्या और गौसंरक्षण को चुनावी मुद्दा बनाया था. लिहाजा सरकार बनने के बाद महाराष्ट्र और हरियाणा में संबंधित कानून को लागू किया जाने लगा. जिसका अब विरोध हो रहा है, दावा किया जा रहा है कि देश में 30 फीसदी आबादी बीफ का सेवन करती है, लेकिन देश के बहुसंख्यकों की आस्था उनका जायका बिगाड़े, ये उन्हें बर्दाश्त नहीं। ये भी दावा किया किया जा रहा है कि गोमांस खाने वालों में हिंदू भी शामिल हैं कुछ हिंदू इसे सगर्व स्वीकार भी कर रहे हैं, इसके लिए प्राचीन काल की कुछ कथाओं का जिक्र किया जा रहा है, लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या तब का समाज और आज का समाज-दोनों में फर्क नहीं है? क्या वे लोग इस दलील को पचा पाएंगे कि प्राचीन काल की कई परंपराएं और रीति-रिवाजों को अगर आज फिर से अपनाने को कहा जाए तो क्या वो इसे स्वीकार करेंगे?  या उसमें सुधार की बात कहेंगे या यह कहेंगे कि ये तो उस जमाने में होता था लेकिन आज के जमाने में वह सब संभव नहीं, तो फिर  गोमांस के मुद्दे पर विभेद क्यों? एक बड़ा उदाहरण सती प्रथा का भी है। प्राचीन काल में सती प्रथा थी, छुआछूत थी, तो क्या उसे भी वापस लाना चाहेंगे? अगर उन्हें नहीं तो गौ हत्या क्यों? गोमांस पर एक राय क्यों नहीं?
अभय मिश्र (मीडियाकर्मी)

क्यों विवाद में मुनव्वर राणा ?

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साहित्य अकादमी सम्मान लौटाने के बाद मशहूर शायर मुनव्वर राणा सोनिया गांधी की तारीफ में लिखी अपनी एक कविता को लेकर विवाद में हैं.

सोनिया गांधी की तारीफ में लिखी मुनव्वर राणा की कविता-

रुख़सती होते ही मां-बाप का घर भूल गयी.

भाई के चेहरों को बहनों की नज़र भूल गयी.

घर को जाती हुई हर राहगुज़र भूल गयी,

मैं वो चिडि़या हूं कि जो अपना शज़र भूल गयी.

मैं तो भारत में मोहब्बत के लिए आयी थी,

कौन कहता है हुकूमत के लिए आयी थी.

नफ़रतों ने मेरे चेहरे का उजाला छीना,

जो मेरे पास था वो चाहने वाला छीना.

सर से बच्चों के मेरे बाप का साया छीना,

मुझसे गिरजी भी लिया, मुझसे शिवाला छीना.

अब ये तक़दीर तो बदली भी नहीं जा सकती,

मैं वो बेवा हूं जो इटली भी नहीं जा सकती.

आग नफ़रत की भला मुझको जलाने से रही,

छोड़कर सबको मुसीबत में तो जाने से रही,

ये सियासत मुझे इस घर से भगान से रही.

उठके इस मिट्टी से, ये मिट्टी भी तो जाने से रही.

सब मेरे बाग के बुलबुल की तरह लगते हैं,

सारे बच्चे मुझे राहुल की तरह लगते हैं.

अपने घर में ये बहुत देर कहां रहती है,

घर वही होता है औरत जहां रहती है.

कब किसी घर में सियासत की दुकान रहती है,

मेरे दरवाज़े पर लिख दो यहां मां रहती है.

हीरे-मोती के मकानों में नहीं जाती है,

मां कभी छोड़कर बच्चों को कहां जाती है?

हर दुःखी दिल से मुहब्बत है बहू का जिम्मा,

हर बड़े-बूढ़े से मोहब्बत है बहू का जिम्मा

अपने मंदिर में इबादत है बहू का जिम्मा.

मैं जिस देश आयी थी वही याद रहा,

हो के बेवा भी मुझे अपना पति याद रहा.

मेरे चेहरे की शराफ़त में यहां की मिट्टी,

मेरे आंखों की लज़ाजत में यहां की मिट्टी.

टूटी-फूटी सी इक औरत में यहां की मिट्टी.

कोख में रखके ये मिट्टी इसे धनवान किया,

मैंन प्रियंका और राहुल को भी इंसान किया.

सिख हैं, हिन्दू हैं मुलसमान हैं, ईसाई भी हैं,

ये पड़ोसी भी हमारे हैं, यही भाई भी हैं.

यही पछुवा की हवा भी है, यही पुरवाई भी है,

यहां का पानी भी है, पानी पर जमीं काई भी है.

भाई-बहनों से किसी को कभी डर लगता है,

सच बताओ कभी अपनों से भी डर लगता है.

हर इक बहन मुझे अपनी बहन समझती है,

हर इक फूल को तितली चमन समझती है.

हमारे दुःख को ये ख़ाके-वतन समझती है.

मैं आबरु हूं तुम्हारी, तुम ऐतबार करो,

मुझे बहू नहीं बेटी समझ के प्यार करो.

सब मेरे बाग के बुलबुल की तरह लगते हैं,

सारे बच्चे मुझे राहुल की तरह लगते हैं.

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